मैं बड़ा हो गया हूँ
मुसलसल बेअदबी में रहा हूँ,
दिखावे की आदमीयत से डरा हूँ।
खो गया है ईश्वर,मुझमे से कहीं,
मै दिलचस्पी मूर्तियों में ढूँढ रहा हूँ।
दूसरों से मिलता रहा, दिन की बैचेनी में,
रातों में फिर खुद को ढूँढ रहा हूँ।
जिस्मानी ताल्लुकात के बाजार में,
मै इश्क़ की तब्दीलियाँ ढूँढ रहा हूँ।
गैर मुखातिब तो हुये मुझसे,
मै अपनों से गैरीयत झेल रहा हूँ।
शमशान की राख तैर गई मृतक की कहीं,
आज़र्दाह मै कोना कोना ढूँढ रहा हूँ।
चमक धमक देख कर जहान की,
मै खुद में कमियाँ ढूँढ रहा हूँ।
बेशक़ गली कूचों में,अब भी होता है खेल,
'मै अब बड़ा हो गया हूँ',नसीहतें झेल रहा हूँ ।
|•तन्वी शर्मा•|
मुसलसल- लगातार,
बेअदबी - असभ्यता ,
आज़र्दाह- उदास,खिजा हुआ
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